ख्वाइशों के दरमियान से गुजरते हुए
रूबरू हम अपनी तकदीर से हुए
मुड़कर देखा तो टूटा भरम
कुछ इस तरह ख्वाब दूर इस दिल से हुए।
महफूज रखा था अपनी मासूमियत को
आखिर कब तक चलेगा ये बचपना भी
हारकर हम भी समझदारों में यूं शामिल हुए।
दुनियादारी की रस्में अब समझने लगे है
गिरकर खुद ही संभलने लगे हैं
कीमत इन आसुओं की जो न चुका सके
मुस्कराकर उन महफिलों में जाने के काबिल हुए।
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